वांछित मन्त्र चुनें

अ॒यं मि॒त्रो न॑म॒स्यः॑ सु॒शेवो॒ राजा॑ सुक्ष॒त्रो अ॑जनिष्ट वे॒धाः। तस्य॑ व॒यं सु॑म॒तौ य॒ज्ञिय॒स्यापि॑ भ॒द्रे सौ॑मन॒से स्या॑म॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayam mitro namasyaḥ suśevo rājā sukṣatro ajaniṣṭa vedhāḥ | tasya vayaṁ sumatau yajñiyasyāpi bhadre saumanase syāma ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम्। मि॒त्रः। न॒म॒स्यः॑। सु॒ऽशेवः॑। राजा॑। सु॒ऽक्ष॒त्रः। अ॒ज॒नि॒ष्ट॒। वे॒धाः। तस्य॑। व॒यम्। सु॒ऽम॒तौ। य॒ज्ञिय॑स्य। अपि॑। भ॒द्रे। सौ॒म॒न॒से। स्या॒म॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:59» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:5» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:4


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - सबको जो (अयम्) यह परमात्मा वा यथार्थवक्ता राजा (मित्रः) मित्र (सुशेवः) उत्तम सुख का दाता (सुक्षत्रः) वा जिसका राज्यदेश उत्तम प्रकार सुखी (राजा) जो पृथिवी का पालनकर्त्ता (वेधाः) बुद्धिमान् (नमस्यः) और सत्कार करने योग्य है तथा जिसका राज्यदेश सुखी (अजनिष्ट) होता है (तस्य) उस (यज्ञियस्य) सत्यव्यवहार के उत्पन्न करनेवाले की (सुमतौ) आज्ञा वा बुद्धि में तथा (सौमनसे) श्रेष्ठ मानसव्यवहार और (भद्रे) कल्याण करनेवाले व्यवहार में (अपि) भी (वयम्) हम लोग (स्याम) प्रसिद्ध होवैं, वैसे ही सब लोग हों ॥४॥
भावार्थभाषाः - जैसे ईश्वर और यथार्थवक्ता पुरुष धर्म में वर्त्तमान हुए नमस्कार करने के योग्य होते हैं, वैसे ही न्याय और विनय से राज्य के पालनकर्त्ता राजा लोग सत्कार करने योग्य होवैं और सज्जन लोग परमेश्वर और यथार्थवक्ताओं के कर्मों में वर्त्तमान हैं, वैसे ही हम लोगों को चाहिये कि वर्त्ताव करें ॥४॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

सर्वैर्योऽयं मित्रो सुशेवः सुक्षत्रो राजा वेधा नमस्योऽस्ति यस्य राष्ट्रं सुख्यजनिष्ट तस्य यज्ञियस्य सुमतौ सौमनसे भद्रेऽपि वयं स्याम तथैव सर्वे भवन्तु ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) परमात्माऽऽप्तो राजा वा (मित्रः) सखा (नमस्यः) परिचरितुं सत्कर्त्तुं योग्यः (सुशेवः) सुष्ठुसुखप्रदः (राजा) भूमिपः (सुक्षत्रः) सुष्ठु सुखि क्षत्रं राष्ट्रं यस्य सः (अजनिष्ट) जायते (वेधाः) मेधावी (तस्य) (वयम्) (सुमतौ) आज्ञायां प्रज्ञायां वा (यज्ञियस्य) न्यायव्यवहारसंपादकस्य (अपि) (भद्रे) कल्याणकरे (सौमनसे) सुमनसि भवे व्यवहारे (स्याम) ॥४॥
भावार्थभाषाः - यथेश्वर आप्ताश्च धर्मे वर्त्तमाना नमस्या भवन्ति तथैव न्यायविनयाभ्यां राष्ट्रपालका राजानः सत्कर्त्तव्याः स्युः। यथा शिष्टाः परमेश्वरस्याऽऽप्तानां च कर्मसु वर्त्तन्ते तर्थेवाऽस्माभिस्सदैव वर्त्तितव्यम् ॥४॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे ईश्वर व आप्त धार्मिक असल्यामुळे वंदनीय असतात तसेच न्याय व विनयाने राज्याचा पालनकर्ता राजा सत्कार करण्यायोग्य असतो व सज्जन लोक परमेश्वर व यथार्थवक्त्यांच्या कर्माप्रमाणे वागतात तसेच आम्हीही वागावे. ॥ ४ ॥